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दो सौ बरस पहले भारत से वेस्ट इंडीज पहुंचें मजदूरों ने इस तरह जिंदा रखा अपनी संस्कृति को

अशोक पांडे

आज से कोई दो सौ बरस पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और ख़ासतौर पर भोजपुर के इलाकों से हज़ारों की संख्या में गरीब मजदूर सुदूर वेस्ट इंडीज़ ले जाए गए. उस समय के ये कैरिबियाई द्वीप भी अंग्रेजों के गुलाम थे. अंग्रेज़ों ने यहां की उपजाऊ ज़मीनों पर गन्ने और चावल के बड़े-बड़े प्लान्टेशन लगा रखे थे जिनमें स्थानीय काले लोगों से गुलामी और बेगार कराई जाती थी. 1833 में इंग्लैण्ड की संसद ने अपने अधीन देशों में गुलामी के उन्मूलन का कानून बनाया जिसके अस्तित्व में आने के बाद प्लान्टेशनों में काम करने वाले मजदूरों की मांग बढ़ी. इसी वजह से इन विपन्न भारतीयों को वहां ले जाया गया.

वेस्ट इंडीज़ के इन प्लान्टेशनों में काम करने के लिए तीन सौ साल पहले से ही अफ्रीका से गुलाम लाए जाते रहे थे. वहां के मूल निवासियों और इन अफ्रीकी गुलामों के संसर्ग से एक ऐसी संस्कृति अस्तित्व में आ चुकी थी जिसकी स्थानीय जड़ों में अफ्रीकी लोककथाओं, रेगिस्तानों, जंगलों और देवताओं ने अपने लिए रास्ते बना लिए थे. फर्क करना मुश्किल था कौन कहाँ से आया होगा.

भारतीय मजदूरों को बहुत सारे वायदों के साथ पांच साल के अनुबंध पर लाया गया था. ज्यादातर अपने पूरे परिवारों के साथ आये थे. बहुत अमानवीय परिस्थितियों में रख कर उनसे जानवरों की तरह काम लिया गया. वे बहुत जल्दी समझ गए कि उनके साथ धोखा हुआ था. हजारों किलोमीटर दूर अजनबी देश में रह रहे इन लोगों को अहसास हो गया कि जीते-जी मुल्क लौट सकना संभव नहीं.

दस से बीस हफ़्तों की कठिन समुद्री यात्रा के बाद घर से इतनी दूर ला पटके गए इन श्रमिकों ने धीरे-धीरे वहां रहना सीखा और नई सन्ततियां पैदा कीं. इन दिनों वहां इन मजदूरों की नवीं-दसवीं पीढ़ियां रह रही हैं. 1960 के दशक में वेस्ट इंडीज़ के ज्यादातर देश आज़ाद हो गए और इन्हीं भारतीयों में से कुछ अपने देशों के प्रधानमंत्री और गवर्नर तक बने. वेस्ट इंडीज़ की क्रिकेट टीम में रोहन कन्हाई, एल्विन कालीचरण और शिवनारायण चन्द्रपॉल जैसे खिलाड़ियों की जगह बनी. ये खिलाड़ी ही पिछले पचास सालों से भारतीय जनमानस को वेस्ट इंडीज़ से जोड़े रहे हैं. त्रिनिदाद, गुयाना, एंटीगुआ, बारबाडोस जैसी जगहें भी इसी कारण हमारी स्मृति में स्थापित हुईं.

कल्पना की जा सकती है कि खेतों में दिन भर काम कर चुकने के बाद प्रवासी मजदूरों की पहली पीढ़ी की औरतें जब चूल्हा जलाती होंगी तो दिल को तसल्ली देने के लिए अपनी दादी-नानियों-मांओं से सीखे लोकगीत और भजन गुनगुनाती होंगी. तीज-त्यौहारों के मौकों पर सामूहिक गाना-बजाना करने के लिए कहीं से ढोलक और हारमोनियम का जुगाड़ भी कर लिया गया होगा. दो-चार सुरीले पुरुष भी रहे होंगे.

अगली पीढ़ियों की स्मृतियों ने भी इन लोकगीतों और भजनों को ग्रहण किया होगा. हो सकता है सम्पन्नता के आने में पूरी शताब्दी बीत गयी हो लेकिन स्थानीय जन और संस्कृति के साथ होने वाले अपरिहार्य संवाद के चलते इन भारतीय आप्रवासियों की सांस्कृतिक संपदा उनके वहां पहुँचने के बाद से लगातार समृद्ध होती रही.

1960 का दशक संसार भर में सांस्कृतिक क्रान्ति का दौर ले कर आया. कैरिबियन द्वीपों में संगीतकारों की एक नई पीढ़ी जन्म ले रही थी जिसकी अगुवाई बॉब मार्ली कर रहे थे. अंग्रेज़ों की घर-वापसी के बाद अपनी जड़ों की तरफ लौट रही कैरिबियाई युवा पीढ़ी ने कैलिप्सो संगीत को अपनी आवाज़ बनाया. नाइजीरिया और ईस्ट इंडीज़ के संगीत से तत्व लेकर कुछ युवाओं ने आत्मा का कैलिप्सो यानी सोल कैलिप्सो म्यूजिक भी शुरू किया.

इस सोल कैलिप्सो म्यूजिक के भीतर एक और विलक्षण संगीत के बीज छिपे थे जिसे 1970 के दशक में चटनी म्यूजिक के नाम से ख्याति मिली.
युवा भारतीय संगीतकारों ने अपनी दादियों-परदादियों और उनकी भी दादियों-परदादियों से सीखी गई धुनों को आधुनिक कैरिबियाई संगीत के साथ मिलाकर एक जबरदस्त शैली ईजाद की. बहुत तेज़ी से इस शैली में भोजपुरी लोक के साथ कैलिप्सो, सोल कैलिप्सो, रेगे और बम्बइया फिल्म संगीत के अंश मिलते चले गए और त्रिनिदाद-टोबैगो से शुरू हुआ यह सांगीतिक मिश्रण गुयाना, फिजी, मॉरीशस, तंज़ानिया, नाइजीरिया और सूरीनाम जैसे मुल्कों में फैल गया.

1980 के आते-आते समूचा वेस्ट इंडीज़ चटनी म्यूजिक की तेज़ धुन को आत्मसात कर चुका था. हारमोनियम और ढोलक से लैस इस संगीत में कैरिबियाई स्टील बैंड के साजों का भी समावेश किया गया. शुरू में गीतों के बोल भजनों और मंगलगीतों से उठाये गए. चटनी संगीत के शुरुआती बादशाह माने जाने वाले सैम बुधराम ने ‘सखी नंदलाला भवन नहीं आये’ भी गाया तो ‘जागो प्रेमसिंह खोलो दुकनिया’ और ‘भौजइया बनावें हलवा छठ्ठी के दिन’ भी.

स्तरीय चटनी संगीतकारों की एक बहुत बड़ी सूची है जिनमें सैम बुधराम के अलावा सुन्दर पोपो, रसिका दीनदयाल, हीरालाल रामप्रताप, देवानंद गट्टू और रवि बिशम्भर के नाम उल्लेखनीय हैं.

Get a taste of Indian chutney music classics from the West Indies

जिस सरल जीवन को आप्रवासी पुरखों ने अपनाया होगा, उसी की परछाई उनकी संततियों के बनाए गीतों पर पड़ी. चटनी गीत बेहद साधारण चीज़ों और छोटी-छोटी खुशियों को अपना विषय बनाते हैं जैसे भोजन, जल, घरेलू अनुष्ठान और देवी-देवता. सुन्दर पोपो का एक गाना है:
नाना-नानी घर से निकले धीरे-धीरे चलते हैं
मदिरा की दुकान में दोनों जाके बैठे हैं
नाना चले आगे आगे नानी गोइंग बिहाइंड
नाना ड्रिंकिंग व्हाइट रम एंड नानी ड्रिंकिंग वाइन

इनमें से ज्यादातर गाने वाले हिन्दी लिख-बोल नहीं पाते लेकिन गीतों के माध्यम से अपने पुरखों से जुड़े रहने की जिद उन्हें अद्वितीय रूप से भारतीय बनाती है. भोजपुरी, अवधी, हिन्दी और अंग्रेज़ी से बने उनके भाषाई मिश्रण को विशेषज्ञ कैरिबियन हिन्दी कहते हैं. पिछले कुछ वर्षों में युवा संगीतकारों ने बिल्कुल आधुनिक विषयवस्तुओं को अपने गीतों में ढाला है. सोनी मान और द्रौपदी रामगुणाई जैसे नए गायकों ने चटनी सोल कैलिप्सो की ईजाद की है और कीबोर्ड, गिटार वगैरह को अपने संगीत का हिस्सा बनाया है.
क़िस्मत से आज से पंद्रह साल पहले हिन्दी ब्लॉगिंग के शुरुआती सालों में मुझे अपने मित्रों इरफ़ान और विमल वर्मा के मारफ़त चटनी संगीत का पता मिला था. संगीत से बेतरह मोहब्बत करने वाले इन नायाब मित्रों का लगाया वह चस्का आज तक लगा हुआ है. एल डोराडो में जन्मे और ‘लायन ऑफ़ कुमुटो’ के नाम से जाने जाने वाले महान सैम बुधराम के जो दो गाने मैंने सबसे पहले सुने थे उसे कमेन्ट सेक्शन में लगा रहा हूँ.

हिन्दुस्तानी संगीत की शास्त्रीयता और लोकपरकता से उपजा यह आल्हादकारी संगीत आत्मा में घुल जाने की कूव्वत रखता है. एक बार सुनना बनता है.

यह लेख अशोक पांडे की फेसबुक वाल से लिया गया है 

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