उत्तराखंड न्यूज़ एक्सप्रेस के लिए कुंवर सिंह बगड़वाल का लेख
EWS यानी कि Economic Weaker Section यानी कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग। अब आते हैं असली मुद्दे पर। जब से यह आरक्षण लागू हुआ है, तब से आप डेटा उठाइए और देखिए इसके तहत होने वाले चयन को। सवाल किसी अभ्यर्थी की योग्यता का नहीं है, सवाल उन मानकों का है जिनके तहत यह आरक्षण लागू किया गया है, वह अपने उद्देश्य में यदि इस प्रकार विफल होता रहेगा, तो कमजोर आर्थिक वर्ग का पैमाना ही पूर्णतयः हास्य का विषय बन जाएगा।
हाल ही में पी सी एस (जे) का परिणाम घोषित हुआ है, और घोषणा के साथ साथ बधाइयों का सिलसिला चल निकला, होना भी चाहिए, एक बड़ी सफलता सबको आपका दोस्त बना देती है, चाहे वह दूर का हो या नजदीक का।
मैं साफ साफ कह रहा हूँ कि यह किसी की योग्यता पर सवाल नहीं है लेकिन कमजोर आर्थिक वर्ग कोटे का परिणाम चौंकाने वाला है। एक अच्छे निजी पब्लिक स्कूल से अपने बच्चे को शिक्षा दिला पाना आज मध्यम वर्ग के लिए ही चुनौती है, ऐसे में कमजोर आर्थिक वर्ग का व्यक्ति आज भी सरकारी स्कूलों पर निर्भर है।
लेकिन अच्छे पब्लिक स्कूलों में पढ़ने वाले, सशक्त पारिवारिक पृष्ठभूमि और सामाजिक रसूख वाले परिवारों के बच्चे जब EWS में चयनित होकर सामने आने लगें तो समझ जाइए, इस ढाँचें में कोई बुनियादी खराबी है। आखिर क्या मानक है EWS का? किस गरीब के बच्चे का भला हुआ है आजतक? क्यों इस में चयनित बच्चे अच्छे और रसूखदार पारिवारिक पृष्ठभूमि से हैं? क्या वो वास्तव में EWS के हकदार हैं ? मैं मानता हूँ इसमें दोष ऐसे लाभार्थी का नहीं है वरन् इसमें वह सारा का सारा सिस्टम अपराधी है जो गरीब और हाशिए पर गए हुए समाज को और गर्त में ढकेलता जा रहा है। इस समाज में गरीब होना एक अभिशाप है, चाहे आप किसी धर्म के हों, जाति के हों।
मुझे हैरत होती है परिणामों को देखकर कि कैसे EWS सिर्फ रोजगार ही नहीं, अपितु प्रत्येक क्षेत्र में एक नए खेल की शुरुआत बन गया है। वहाँ यह खेल गरीब के पेट और मेहनत पर बुलडोजर चला रहा है और हम आँखों पर पट्टी बाँधे हुए लहालोट हुए जा रहे हैं।
व्यक्तिगत तौर पर मैं EWS का हकदार उस इंसान को मानता हूँ जो पहाड़ के एक संसाधनविहीन गाँव में रहता है या शहर में दैनिक कार्यों से रोजी रोटी कमाता है और सरकारी शिक्षा पर पूरी तरह निर्भर है। उसके पास नहीं है इतना धन कि भर सके कि अल्मोड़ा के कूर्मांचल, होली एंजिल , बीयरशिबा की आँतों को निचोड़ लेने वाली फीस, उसके स्टैंडर्ड की यूनिफार्म, उनके स्पेशल कोर्स की किताबें, उनकी बस का किराया। उसका बच्चा पैदल नापता है गाड़ गधेरों का रास्ता और पहुँचता है सरकारी स्कूल। स्कूल से वापस आकर कहीं पानी के नौले का चक्कर लगाता है तो कहीं खेत का। आप कैसे दोनों को एक तराजू में तौल सकेंगे? इसी अंतर को पाटने के लिए लाया गया था EWS और हुआ क्या है? आप और हम देख रहें हैं। देख पा रहें हैं ना?
आँखें बंद कर लेने से हकीकत नहीं बदल जाती। यह देश और समाज अपने एक कमजोर हिस्से के लिए बेहद निर्मम है, वह उसकी तरफ देखना नहीं चाहता।
बहरहाल सभी चयनितों को बधाई और जो चयन सूची में नहीं आ सके, उनके लिए बहुत बहुत प्यार। आप कोशिश जारी रखिए, इसी सियाह समंदर से नूर निकलेगा दोस्तों।
मैं फिर बताना चाह रहा हूं कि मैं जनपद अल्मोड़ा के एक ऐसे विकासखंड से हूं जहां पदस्थता यानी पोस्टिंग को शिकायतन माना जाता है यानी पनिशमेंट, और परमेश्वर के आशीर्वाद से वर्तमान में भी में कुछ ऐसे विकास खंडों के दौरे पर रहता हूं या सर्वे पर रहता हूं जहां स्थिति ऐसी है नए बच्चों को पता ही नहीं है EWS है क्या और उस के सर्टिफिकेट कौन बनाएगा? कैसे बनेगा ?
हां मुख्यालय में रह रहे बच्चे उससे लाभान्वित भी हुए और उन्हें इस श्रेणी का लाभ मिला ऐसा बच्चा जो मुख्यालय से कम से कम 30 से 50 किलोमीटर दूर हो और पहाड़ में यह दूरी कम से एक से कम दो घंटा होता है। और वहां आने के लिए उसे एक नियत धनराशि की आवश्यकता होती है ।
यह व्यक्तिगत आक्षेप बिल्कुल नहीं है